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अपने शब्दों में आपके मन से मुलाक़ात।

पहाड के अँधकार से बचकर, नीले गगन की ओर देखा, तो सृष्टि  की मादकता मुझे आकर्षित करने लगी।  उसकी मनोहरता और शोभायमान हर्कते ही मेरी मन की मनोरंजना बनी। इक वृक्ष की छाँव में बैठकर मैं संसार की सौष्ठव और उसके पीछे छिपे विधाता के सृजनशीलता के बारे मे जानने के लिए हितबद्ध थी।

सूर्य अपने धवल और शीत किरणों के उत्पादन से विश्र्व को पुन: जगाते हुए, पशु-पक्षी स्नेह और आमोद से अपने रहन का आनंद उठाते हुए, और समुद्र के लहर की शीतल हवा मेरे शरीर को पवित्र करते हुई, मैं अनुभव कर रही थी। वहाँ पर स्थित नारियल पेड़ों से ताज़ी सुगंध तो मेरी सोच के बाहर थी । उस माटी का हर अंश भूमि की रक्षा के लिए निर्धारित, और उसका उद्येश्य - सृष्टि के अस्तित्व को बनाए रखना।

झाडियों  को सजाने वाली विभिन्न तरह के फूलों की बात आई, तो निर्माता ने कुदरत के अलंकरण में कोई कमी नहीं छोड़ी। इसकी छवी तो असीमित है । शत्रु भी इसे दुःख  पहुँचाने  के बारे में हाथ न उठाएँगे ।

प्रतिदिन एक नए जीवन की शुरुआत होती है। प्रकृति का हर अंश एक नवीन गीत के रूप में ,अपने माता को, सच्चे दिल से धन्यवाद और सम्मान करते हुए स्वयं का प्रदर्शन कर रहा था । इस पूरे दृष्य मे एक थी , जो मेरी नज़र के सामने से बिल्कुल नही हटना चाह रही थी।

मैं अकेले बैठी, घास के पत्तियों की संगति में । कुछ देर के लिए  विश्राम करना चाह रही थी, अकस्मात मुझे ऐसा लगा कि किसी ने मुझे झट से पकड लिया हो। मैं भयभीत हो गई । पीछे मुड़कर देखा, तो राहत की दृष्य थी। एक नन्ही  सी गिलहरी अपनी प्यारी सी ऊँगलियों से मुझे इशारे दिखाने का प्रयत्न  कर रही थी। परंतु ,समझने  में, मैं असमर्थ रही। उसके आँखे  कुछ  बताना चाह रहीं थीं, उसकी भावनाएं यह संकेत दे रहे थे, कि वह मुझे अपनी रक्षक बनाना चाह रही थी, मेरे पास शरण लेते हुए। उसे इस बाधा से बचाने वाला कोई चाहिए था, अगर कोई मिल जाता तो वह प्रसन्नता से उछलने को  सिद्ध् हो जाती । इसके आँखों को ध्यानपूर्वक और गौर से देखा, तो, भूरे और पानी  से भरे हुए नेत्रगोल्कों  के परे मुझे एक गह्रा सा ब्रम्हांड दिखाई  दिया।

यह मनुष्य तो नही थी, इसकी बोल भी शुद्ध नही थी, लेकिन स्वयं के भावों  को  प्रस्तुत करने के तरीके को तो इसने संपूर्ण कर दिया। उसकी अभिव्यक्ति कहीं पर भी नही चूकी। इसकी शक्ति मनुष्यों  से भी बढ़कर थी । जब भी इसको याद करती हूँ तब उसकी परछाई मेरे मन के दीवारों पर बह जाती है ।
      तो यह थी दोस्तों, अपने शब्दों में आपके मन से मुलाक़ात।

श्रीकरी (9 B)