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नागरिकों का रवैया

Author Introduction:
Hey! I’m Rishita from Grade 9A. I enjoy writing stories in different languages.

आपको अढ़सठवे स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!

"यदि पृथ्वी के मुख पर कोई ऐसा स्थान है जहाँ जीवित मानव जाती के सभी सपनों को बेहद शुरुआती समय से आश्रय मिलता है और जहाँ मनुष्य ने अपने अस्तित्व का सपना देखा, वह भारत है ! " - मेक्स म्यूलर, जर्मन विद्वान

में ऊपर लिखित कथन से सहमत हूँ। इसी संदर्भ में मैं अपने देश के नागरिकों से कुछ कहना चाहती हूँ। व्यक्ति समाज के बिना नहीं रह सकता। समाज के लिए वह अपने कर्तव्यों का पालन करेगा तभी वह सही अर्थों में देश का सच्चा नागरिक कहलायेगा। अर्थात जियो और जीने दो।

सर्वप्रथम , हमारे पावन राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान को आदर आज की पीढ़ी नहीं दे पा है। जगह-जगह , १५ अगस्त के दिन , मैं अपने राष्ट्रीय झंडे को पैरों तले रोंधते हुए देखती हूँ और अत्यंत दुःख महसून करती हूँ। वर्ग, धर्म, क्षेत्र और भाषा को लेकर दंगे-फसाद का होना हमारे देश के गौरव के लिए बड़ी ही शर्मनाक बात है। जिस देश के महापुरुष भारत की अखंडता और एकता के लिए अपने प्राणो की बलि दे गए वहीं हम लोग इन सब के लिए लड़ाई-खगड़े करते हैं। साथ ही साथ कुछ सरकारी सम्पत्तियों का भी दुरूपयोग हो रहा है, जैसे की बसों में सफर वाली जनता उसकी खिड़कियों पर गन्दगी फैला देते हैं। एक और महत्वपूर्ण विषय है महिलाओं की सुरक्षा व् सन्मान एवं दीन-दुखियों के प्रति सहानुभूति-सहायता का भाव होना भी अति आवश्यक है।

मैं आपको कुछ महापुरुष स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर प्रकाश डालना चाहती हूँ। मोहनदास करमचंद गांधी, भगत सिंह, सरदार वल्लभभाई पटेल , सुभाष चन्द्र बोस, बाल गंगाधर तिलक, रानी लक्ष्मीबाई आदि महापुरुषों ने हमारे देश को स्वाधीनता दिलाने के लिए अपने आप को मातृभूमि चढ़ा दिया। "क्या हमारा यह कर्तव्य नहीं है की हम इस अमूल्य आज़ाद देश को प्रगति पद पर अग्रसर बनाएँ और दुनिया के 'विकसित' देशों की श्रेणी में अपने देश का नाम उच्च स्थान लाएं। और इसके लिए नागरिकों को अपना रवैया देश के सन्मान की तरफ बदलना होगा। उद्धरण के लिए: राष्ट्र से सम्बंधित किसी भी वस्तु, ध्वज व् गान का अनादर न करें। कानून का उलंगन न करें सरकारी अधिकारीयों को रिश्वत देकर। अनेकता में एकता भारत की विशेषता को बनाए रखें। महिलाओं को भी समानता का अधिकार दें। वृद्ध-दुखियों की मदद के लिए सदेव तैयार रहें। परिवार के प्रति कर्तव्य ही समाज के प्रति कर्तव्य, अर्थात देश के प्रति कर्तव्य है !

अंतः मैं अपने देश के नागरिकों से यही विनती करना चाहूंगी कि इन छोटी-छोटी बातों का ध्यान रख कर हम अपने देश को गौरवशाली स्थान दिल सकते हैं और नयी, बढ़ती युवा पढ़ी से मेरा निवेदन है कि हमें एक बहुत बड़ा बदलाव लाना होगा। तभी हम भारत माता के सच्चे सपूत कहलाएंगे।

भारत माता ही जय

जय हिंद!

चींटी से मिली जीत की प्रेरणा!

"स्टार साइकिलिस्ट हैंनाह वाकर की एक और रोमांचक जीत।" यह थी लघभग सभी अखबारों की हैडलाइन। सभी
की जबान पर सिर्फ एक ही नाम था - "हैंनाह वाकर!"
दो वर्ष पहले १९ साल की साइकिलिस्ट हैंनाह वाकर का पैर एक कार एक्सीडेंट में टूट गया था और डॉक्टरों ने कहा
था की उसके पैर को ठीक होने के लिए कम से कम दो वर्ष तो लग ही जाएँगे। फिर भी यह कहा नही जा सकता की
वह साइकिल उसी रफ़्तार से चला पाएगी की नहीं। क्योंकि वह उस समय दुनिया की सबसे बड़ी और मुश्किल रेस
'टूर दी फ्रांस' को सबसे कम समय में खत्म किया और वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया। अब, दो साल बाद, दस किलोमीटर भी
साइकिल नहीं चला पा रही थी। पर उसके प्रशंसक उस पर बहुत दबाव दाल रहे थे की उसे फिर रेस में शामिल होना
चाहिए।

जैसे ही रेस शुरू हुई वैसे ही, वैसे ही सभी साइक्लिस्टों ने अपनी साइकिलें तेज़ी से आगे बढ़ायी, क्योंकि सभी पहले
से ही आगे रहना चाहते थे, ताकि बाद में उन्हें पीछे करना मुश्किल हो जाए। यह रेस चूँकि कई दिनों तक चलती
रहती थी और इसके लिए स्टैमिना बहुत जरुरी था। हैंनाह को यह पता था, इसलिए उसने धीरे-धीरे शुरुआत की
ताकि उसके पैर पर, जो अब तक सामान्य स्थिति तक स्वस्थ नहीं हुआ था, ज्यादा जोर न पड़े। पहले दिन में
सभी लोग तेजी से जा रहे थे और उन्हें पीछे करना मुशील होता जा रहा था। पहले दिन की समाप्ति पर हैंनाह
अंतिम पोजीशन पर थी। फिर भी उसे विश्वास था की कभी न कभी उसे भी मौका मिलेगा। दुसरे और तीसरे दिन
दिन हैंनाह ज्यादा तेजी से आगे बढ़ने लगी और उसने कइयों को पीछे छोड़ दिया। और दो दिन बाद हैंनाह पहले
बीस साइक्लिस्टों में से एक थी। सभी को भरोसा था की हैंनाह इस रेस को जीत पाएगी । पर छटवें दिन एक बहुत
बुरी घटना घडी। हैंनाह एक शार्प टर्न ले रही थी, जब गलती से उसका पैर मुद गया। हैंनाह गिर पड़ी। वहाँ उसकी
मदद करने वाला कोई नहीं था। हैंनाह थोड़ी देर बाद फिर उठी, पर तब तक वह बहुत पीछे पड़ गयी थी। वह सोचने
लगी की वह अब रेस हार गयी थी। वह निराश होकर साईकिल पकड़ कर चलने लगी। तभी उसकी नज़र एक चींटी
पर पड़ी, जो एक दुसरे मरे हुए कीड़े को उठाकर ले जाने की कोशश कर रही थी। वह कीड़ा उस चींटी से बीस गुना
ज्यादा भारी था, पर चींटी हार नहीं मान रही थी और लगातार प्रयास कर रही थी । हैंनाह ने सोचा, "अगर यह चींटी
ऐसा असंभव काम कर सकती है, तो मैं क्यों नहीं?" इस विचार से प्रेरित हैंनाह फिर से साइकिल चलाने लगी।
उसने अपनी सारी ताकत लगाई और उसके मन में सिर्फ उस चींटी का विचार था। वह अपने दर्द की तरफ ध्यान
नहीं दे रही थी और कुछ ही देर में वह दुसरे साइक्लिस्टों को देख पा रही थी। उसकी आँखे सिर्फ फिनिश रेखा की
ओर थी और वह लगातार पूरी ताकत के साथ पडलिंग करती जा रही थी। वह अपने आप में नहीं थी। उसे पता भी
नहीं चला, उसने कब रेस जीत ली। उसके कानो में एक ही स्वर गूँज रहा था, "हैंनाह यु कैन डू इट", "हैंनाह यु कैन
डू इट!" यह संभव हुआ सिर्फ एक चींटी की वजह से।
मेरा नाम प्रसाद कुबेरकर है। मैं कक्षा ९ A का छात्र हूँ। मेरी रूचि पुस्तकें पढ़ना और टेनिस खेलना
है। मेरी इस कहानी ने मिलाप समाचार पत्र में प्रथम स्थान प्राप्त किया।